रेगिस्तानी क्षेत्रों में पशुपालन के आधुनिक तरीके
रेगिस्तानी क्षेत्र में पशुपालन केवल परंपरा नहीं, बल्कि जीवन का अभिन्न अंग है। राजस्थान, गुजरात और हरियाणा के शुष्क इलाकों में जहाँ वर्षा सीमित और तापमान अत्यधिक होता है, वहाँ पशुपालन ही ग्रामीण अर्थव्यवस्था को जीवित रखता है। आज आधुनिक तकनीक और सरकारी योजनाओं ने इस क्षेत्र के पशुपालकों के लिए नई संभावनाएँ खोल दी हैं।
1️⃣ रेगिस्तानी क्षेत्रों में पशुपालन की चुनौतियाँ
- जल की कमी: रेगिस्तानी इलाकों में जल उपलब्धता कम होने से पशु पीने के पानी और चारा उत्पादन दोनों में कठिनाई होती है।
- चारे की कमी: वर्षा-आधारित कृषि पर निर्भरता के कारण चारे की मात्रा सीमित रहती है।
- तापमान का प्रभाव: गर्मियों में तापमान 45°C से ऊपर और सर्दियों में 5°C तक गिरने से पशुओं पर तापमान तनाव (heat stress) का असर होता है।
- रोग और परजीवी: सूखे और गर्म वातावरण में खुरपका-मुंहपका (FMD), गलघोटू (HS) और BQ जैसे रोग प्रचलित रहते हैं।
2️⃣ रेगिस्तानी परिस्थितियों में उपयुक्त नस्लें
रेगिस्तानी जलवायु में केवल वही नस्लें टिक पाती हैं जो कम चारा और पानी में बेहतर प्रदर्शन कर सकें। राजस्थान की प्रमुख नस्लें इस प्रकार हैं —
- थारपारकर गाय: दूध और काम दोनों के लिए उपयुक्त; उच्च तापमान सहनशील।
- राठी नस्ल: उत्तरी राजस्थान की प्रमुख दुग्ध नस्ल; औसत दूध 8–10 लीटर।
- मरवाड़ी नस्ल: मरुस्थलीय क्षेत्रों की टिकाऊ नस्ल, ऊँट या बैल के रूप में उपयोग।
- सिरोही बकरी: तेजी से बढ़ने वाली और मांस उत्पादन के लिए प्रसिद्ध।
- पुंगनूर गाय: भारत की सबसे छोटी नस्ल; कम चारा, कम पानी और उच्च फैट वाला दूध (8–12%)। रेगिस्तानी इलाकों में अब इसे थारपारकर या राठी के साथ क्रॉस-ब्रीडिंग में उपयोग किया जा रहा है।
3️⃣ आधुनिक तकनीकें जो पशुपालन को बदल रही हैं
- हाइड्रोपोनिक चारा उत्पादन: 1×1 मीटर के कमरे में प्रतिदिन 100–200 किग्रा हरा चारा उगाया जा सकता है। इसमें केवल पानी की फुहारें दी जाती हैं — मिट्टी की आवश्यकता नहीं।
- सौर ऊर्जा आधारित डेयरी उपकरण: सोलर-चलित दूध मशीने, कूलर, और वाटर पंप ग्रामीण डेयरियों के लिए उपयोगी हैं।
- मोबाइल पशु चिकित्सा सेवा (1962): केवल कॉल करने पर पशु चिकित्सक गाड़ी सहित गाँव तक पहुँचते हैं।
- कृत्रिम गर्भाधान (AI): नस्ल सुधार के लिए निःशुल्क सेवा; सुधरी हुई नस्ल से दूध उत्पादन में वृद्धि होती है।
- नमी-संरक्षण आधारित पशु-आश्रय: रेत-ईंट, टाइल्स या मड-ब्रिक से बने शेड तापमान को 8–10°C तक नियंत्रित रखते हैं।
4️⃣ चारा उत्पादन के नवीन मॉडल
रेगिस्तानी इलाकों में चारा उत्पादन एक बड़ी चुनौती है। आधुनिक तकनीकों से इसे हल किया जा सकता है:
- मोरिंगा (सहजन) चारा: प्रोटीन (25–28%) से भरपूर; सूखे में भी हरा रहता है।
- अजोला खेती: पानी में उगाई जाने वाली फर्न जैसी वनस्पति; दूध उत्पादन में 10–15% तक वृद्धि करती है।
- नेपियर (सुपर नेपियर) घास: प्रति बीघा सालाना 250–300 क्विंटल तक उत्पादन देती है।
- साइलो पिट तकनीक: हरे चारे को सड़ने से बचाकर 3–6 माह तक सुरक्षित रखा जा सकता है।
5️⃣ सरकारी योजनाएँ जो रेगिस्तानी पशुपालकों की मदद कर रही हैं
- राष्ट्रीय पशुधन मिशन (NLM): पशुपालन उद्यम स्थापित करने हेतु 50% तक सब्सिडी। ऑनलाइन आवेदन
- फीड एंड फॉडर डेवलपमेंट योजना: चारा बीज, नलकूप और फीड यूनिट पर अनुदान।
- राजस्थान गोपालन अनुदान योजना: गौशालाओं व गोसेवकों को आर्थिक सहायता।
- निःशुल्क टीकाकरण अभियान: FMD, HS, BQ, PPR आदि रोगों के विरुद्ध नियमित टीकाकरण।
- निःशुल्क कृत्रिम गर्भाधान योजना: प्रशिक्षित परावैट्स द्वारा निःशुल्क सेवा; सुधारित बछड़ों का जन्म।
6️⃣ रेगिस्तानी पशुपालकों के लिए आधुनिक डेयरी प्रबंधन टिप्स
- सुबह-शाम पशुओं को छाया और स्वच्छ पानी दें।
- गर्मी में दोहन समय बदलें (सुबह जल्दी, शाम देर)।
- पशु आहार में मिनरल मिक्स और गुड़ मिलाकर दें।
- हीट स्ट्रेस कम करने हेतु कूलर या वेंटिलेशन फैन लगाएँ।
- टीकाकरण व कृत्रिम गर्भाधान का पूरा रिकॉर्ड रखें।
7️⃣ सफल पशुपालकों से सीख
बीकानेर जिले के कई पशुपालकों ने सौर ऊर्जा आधारित “मिनी-डेयरी यूनिट” से दूध संग्रह और शीतलन की लागत घटाई है। जोधपुर के एक युवा पशुपालक ने 300 वर्ग फीट में हाइड्रोपोनिक यूनिट लगाकर प्रतिदिन 150 किग्रा हरा चारा तैयार किया। ये उदाहरण बताते हैं कि आधुनिक तकनीक और स्थानीय अनुभव के मेल से रेगिस्तान में भी लाभदायक पशुपालन संभव है।
8️⃣ निष्कर्ष
रेगिस्तानी क्षेत्र में पशुपालन का भविष्य अब केवल परंपरा पर नहीं, बल्कि तकनीकी नवाचारों पर आधारित है। सरकार की योजनाओं, नस्ल सुधार, चारा प्रबंधन और ऊर्जा-सक्षम उपायों से पशुपालक अब आत्मनिर्भर और समृद्ध बन सकते हैं।
लेख स्रोत: राजस्थान पशुपालन विभाग, राष्ट्रीय पशुधन मिशन, और NABARD योजनाओं से संकलित जानकारी।
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