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जलवायु परिवर्तन और पशुपालन : बदलते मौसम, बढ़ते खतरे और हमारे समाधान

Training • 02 Nov 2025 • 3 min read
जलवायु परिवर्तन और पशुपालन

1. बढ़ता तापमान और दूध उत्पादन में गिरावट

गर्मी के तनाव (Heat Stress) का सीधा असर दुग्ध उत्पादन पर देखा जा रहा है। जब परिवेश का तापमान 30°C से अधिक हो जाता है, तो गाय और भैंसें कम खाती हैं, पानी अधिक पीती हैं और उनका शरीर दूध उत्पादन के बजाय ठंडक बनाए रखने में ऊर्जा खर्च करने लगता है।

अनुसंधानों से पता चला है कि लगातार ऊँचे तापमान के दौरान दूध की मात्रा 10-25% तक घट जाती है। विशेषकर विदेशी नस्लें जैसे हॉल्सटीन-फ्रिज़ियन या जर्सी, भारतीय गर्मी में जल्दी प्रभावित होती हैं। इसके विपरीत, देशी नस्लें (साहीवाल, गिर, थारपारकर, राठी आदि) अपेक्षाकृत अधिक अनुकूलन क्षमता रखती हैं।

2. जल की कमी और फीड-संकट

जलवायु परिवर्तन का सबसे सीधा असर पानी के स्रोतों पर पड़ता है। कम वर्षा, सूखे और भूजल स्तर में गिरावट से पशुओं के लिए पीने का पानी और चारे की सिंचाई दोनों प्रभावित होते हैं।

भारत के कई राज्यों में ग्रीन फॉडर की उपलब्धता 30-35% तक कम हो चुकी है। इससे पशुपालक सूखे चारे या महंगे दानों पर निर्भर होते जा रहे हैं, जिससे उत्पादन लागत बढ़ती है और लाभ घटता है।

3. रोग और परजीवी संक्रमण में वृद्धि

गर्म और आर्द्र मौसम परजीवियों के प्रजनन के लिए अनुकूल होता है। टिक, मच्छर, मक्खियाँ और फफूंद जैसे जीव तेजी से फैलते हैं, जिससे एफएमडी, एंथे्रक्स, ब्लैक क्वार्टर, ब्लूटंग, टिक फीवर जैसे रोगों का खतरा बढ़ता है।

कई बार इन रोगों के संक्रमण क्षेत्र बदल जाते हैं — जो इलाका पहले सुरक्षित था, वहाँ भी अब बीमारी फैलने लगी है। इसीलिए पशुपालन विभागों को अब रोग-निगरानी (Disease Mapping) और टीकाकरण शेड्यूल को नए सिरे से तय करना पड़ रहा है।

4. जलवायु का असर प्रजनन पर

ऊँचे तापमान से मादा पशुओं में हीट साइकल की अनियमितता बढ़ती है और नर पशुओं में शुक्राणु की गुणवत्ता घटती है।

विशेषज्ञों का मानना है कि अगर तापमान 35°C से ऊपर रहता है तो गर्भधारण की संभावना 20-30% तक घट सकती है। यही कारण है कि कई राज्यों में कृत्रिम गर्भाधान (AI) सफलता दर में गिरावट दर्ज की जा रही है।

5. चरागाह और जैव-विविधता पर खतरा

जहाँ कभी चराई के लिए हरे मैदान थे, वहाँ अब सूखे बंजर टुकड़े रह गए हैं। चरागाहों के सिकुड़ने से न सिर्फ़ पशुओं का पोषण घटा है, बल्कि पक्षियों, कीड़ों और मिट्टी के सूक्ष्म जीवों की विविधता भी घट रही है — जो मिट्टी को उपजाऊ बनाए रखते थे।

6. जलवायु-स्मार्ट पशुपालन की दिशा में कदम

अब यह समय है कि पशुपालक, वैज्ञानिक और नीति निर्माता मिलकर Climate Smart Livestock System की ओर बढ़ें। इसका अर्थ है — ऐसे उपाय अपनाना जो जलवायु प्रभाव को कम करें और पशुपालकों की आय को सुरक्षित रखें।

  • स्थानीय नस्लों को प्राथमिकता: देशी पशु गर्मी-सहनशील होते हैं, कम चारे में अधिक टिके रहते हैं और रोग-प्रतिरोधी भी होते हैं।
  • पानी बचाने वाली तकनीकें: बायोगैस स्लरी का पुन: उपयोग, रेनवॉटर हार्वेस्टिंग और ड्रिप सिंचाई द्वारा चारे की सिंचाई।
  • छायादार आश्रय स्थल: पशु शेड में वेंटिलेशन, फॉगिंग और ग्रीन शेड नेट का उपयोग।
  • फ़ीड बैंक और साइलो पिट: बरसात के समय फॉडर संरक्षित करें ताकि सूखे में पशुओं को नियमित चारा मिले।
  • बीमा और डिजिटल ट्रैकिंग: पशु बीमा योजना (NABARD या राज्य योजनाओं से) का लाभ लें और पशुओं की पहचान ईयर टैग से करें।

7. सरकारी और सामुदायिक पहलें

भारत सरकार की राष्ट्रीय पशुधन मिशन (NLM), Gokul Mission और कई राज्यों के "Fodder Development Program" इसी दिशा में काम कर रहे हैं।

सामुदायिक स्तर पर NGOs और किसान समूहों द्वारा फॉडर बैंक, कूल शेड डेवलपमेंट और स्थानीय नस्ल संवर्धन जैसी गतिविधियाँ जलवायु-स्थायित्व के लिए प्रभावी कदम साबित हो रही हैं।

8. भविष्य की राह: विज्ञान और संवेदना का संगम

पशुपालन अब सिर्फ़ परंपरागत आजीविका नहीं रहा; यह एक ऐसा क्षेत्र बन चुका है जिसमें विज्ञान, संवेदना और पर्यावरण संरक्षण तीनों का संतुलन जरूरी है।

यदि हम पशुपालन को जलवायु-संवेदनशील दृष्टि से देखना शुरू करें — तो आने वाले वर्षों में यह न सिर्फ़ हमारी अर्थव्यवस्था बल्कि पर्यावरण संरक्षण का सबसे मजबूत आधार बन सकता है।

निष्कर्ष

जलवायु परिवर्तन कोई दूर की बात नहीं — यह हर गोठ, हर डेयरी और हर पशुपालक के जीवन में आ चुका है। हमारे लिए अब सबसे बड़ा प्रश्न यही है कि हम इसे स्वीकार कर इसे सुधार की दिशा में कैसे बदलें। स्थानीय ज्ञान, वैज्ञानिक तकनीक और सामूहिक प्रयास — यही तीन आधार हैं जो पशुपालन को आने वाली चुनौतियों से सुरक्षित रख सकते हैं।


लेखक: डॉ. मुकेश स्वामी
(वरिष्ठ पशु चिकित्सक एवं पर्यावरण कार्यकर्ता, Shristi Mitraa & Pashupalan.co.in)


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